कर्मा बाईसा (भक्ति-कथा) श्रीजगन्नाथ
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लगभग एक हजार वर्ष पूर्व झाँसी उत्तरप्रदेश में श्री रामशाह प्रतिष्ठित तेल व्यापारी के घर में जन्मी मेरे गोविंद की कर्मा ।
बाल्यावस्था से ही कर्माबाई की श्रीकृष्ण के प्रति अनन्य प्रीति हो गई थी ,
यह भक्ति भाव मन्द-मन्द गति से बढता गया।
कथा सब जानते हैं ।
कई बार लोकगीतो द्वारा इसी बहाने गोविंद को याद भी किया जाता है की बाल्यवस्था में किस प्रकार पिताजी को कार्य हेतु दूर गांव जाना पड़ता है
तब भाव से खिचड़ी का भोग लगाती है,और प्रभु भी प्रेम के वशीभूत हो स्वयं आकर भोग लगाते है।
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अब आगे की कथा सुनिये :-
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विवाह योग्य हो जाने पर बाई सा का सम्बंध नरवर ग्राम के प्रतिष्ठित व्यापारी के पुत्र के साथ कर दिया गया। पति सेवा के पश्चात कर्माबाई को जितना भी समय मिलता था वह समय भगवान श्री क्रष्ण के भजन-पूजन ध्यान आदि में लगाती थी।
........... समय बीतता गया बीमारी के कारण कर्माबाई के पति का स्वर्गवास हो गया।
पति के स्वर्गवास होने के तीन माह उपरान्त कर्मा जी के दिूतीय पुत्र का जन्म हुआ | उसका प्रतिदिन का समय दोनों बालको के लालन-पालन और भगवान की भक्ति में व्यतीत हो जाता था |
तीन वर्ष के पशचात कर्मा को भगवान के दर्शन करने की प्रबल इच्छा हुई तब एक दिन सुध-बुध भूलकर आधी रात के समय अपने वृद्ध माता पिता और दोनो बच्चों को सोता छोडकर प्रभु के ध्यान में लीन घर से निकल गई |
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घोर अंधकार को चीरती हुई भगवान जगन्नाथपुरी के मार्ग की और चली गई | उसे यह भी ज्ञात नहीं हुआ कि वह कितनी दूरी चल चुकी है |
लगातार कई दिनो तक चलते रहने के कारण से अब कर्मा जी को अतयन्त पीडा होने लगी थी वह वृक्षों की पत्तियां खाकर आगे बढी राह में कर्मा भजन गाती हुई जगन्नाथ जी के विशाल मन्दिर के प्रमुख द्वार पर पहुची |
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एक थाली में खिचडी सजाकर पुजारी कें समक्ष भगवान को भोग लगाने हेतु रख दी।
पुजारियों ने इस दक्ष्णिा हीन जजमान को धक्के मारकर बाहर कर दिया | बेचारी उस खिचडी की थाली को उठाकर समुद्र तट की अोर चल दी और समुद्र के किनारे बैठकर भगवान की आराधना करने लगी कि घट-घट व्यापी भगवान अवश्य ही आवेंगे और इस विश्वास में आंख बन्द करके भगवान से अनुनय-विनय करने लगी कि जब तक आप आकर भोग नही लगावेंगे तब तक मै अन्न ग्रहण नही करूंगी | यह भोग तो प्रभु के निमित्त बना है |
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सुबह से शाम तक भगवान की प्रतीक्षा करती रही | धीरे धीरे रात ढलती गई और प्रभु के ध्यान में मग्न हो गई | एकाएक भगवान की आवाज आई कि "मां,, तू कहां है? मुझे भूख लगी है
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" इतने अंधकार में भी उसे प्रभु की मोहनी सूरत के दर्शन हुए और प्रभु को अपनी गोद में बैठाकर खिचडी खिलाने लगी | इसके बाद कर्मा मां ने प्रभु की छोडी हुई खिचडी ग्रहण की और आनंद विभोर होकर सो गई |
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सुबह के प्रथम दर्शन में पुजारी ने देखा कि भगवान के ओंठ एवं गालों पर खिचडी छपी हुई है
तभी पुजारी लोग बोखला उठे और कहने लगे कि यह करतूत उसी कर्मा की है जो चोरी से आकर प्रभु के मुंह पर खिचडी लगाकर भाग गई है |
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राज दरबार में शिकायत हुई कि कर्मा बाई नाम की ओरत ने भगवान के विग्रह को अपवित्र कर दिया |
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सभी लोग ढूंढते हुऐ कर्मा के पास समुद्र तट पहुँचे और फरसा से उसके हाथ काटने की राजा द्वार आज्ञा दी गई। परन्तु प्रभु का कोतुक देखिये कि ज्यों ही उस पर फरसे से वार किया गया तो दो गोरवर्ण हाथ कटकर सामने गिरे, परन्तु कर्माबाई ज्यो की त्यों खडी रही राज दरबारियों ने फिर से वार किया,परन्तु इस बार दो गोरवर्ण हाथ कंगन पहने हुए गिरे | तभी राज दरबारियों ने देखा की वह तो अपनी पूर्वस्थिती में खडी है|
अन्यायियों ने फिर से बार किया तो इस बार दो श्यामवर्ण हाथ एक में चक्र, और दूसरे में कमल लिये हुए गिरे |
जब दरबारियों को इस पर भी ज्ञान नहीं हुआ और पागलो की तरह कर्मा पर वार करने लगें तब आकाशवाणी हुई
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"कि अरे दुष्टों | तुम सब भाग जाओ नही तो सर्वनाश हो जाएगा" और जिन्होंने हाथ काटे थे उनके हाथ गल गए | कुछ लोग भाग खडे हुए और कहने लगे यह जादूगरनी हैं |
यह खबर राज दरबार में पहुची तो राजा भी व्याकुल होकर तथ्य को मालूम करने के लिये जगन्नाथ जी के मन्दिर में गये | वहाँ राजा ने देखा कि बलदेव जी, सुभद्रा जी एवं भगवान जगन्नाथ जी के हाथ कटे हैं |
तब वहाँ के सारे पुजारियों एवं परिवारो में हाहाकार मच गया और कहने लगे कि अनर्थ हो गया |
राजा को स्वप्न में प्रभु नें आज्ञा दी कि हाथ तो माँ को अर्पित हो गये
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अब तो माँ ने जीवन के अंत तक जगन्नाथ पुरी में निवास किया।
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लोग दूर प्रान्तों से आकर जगन्नाथ प्रभु के दर्शन हेतु श्रीमंदिर जाते और ये प्रभु प्रतिदिन नियम से श्रीमंदिर के पट खुलने से पहले पहुँच जाते कर्माबाई के झोपड़े में।
कर्मा बाई रोज सुबह उठतीं पहले खिचड़ी बनातीं. प्रभु माँ - माँ करते हुए आते और प्रेम से खिचड़ी खाकर जाते.
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एकबार जगन्नाथ जी के मंदिर का एक पुजारी कर्मा बाई के दर्शन को आया
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उसने सुबह-सुबह खिचड़ी बनाते देखा तो कहा-नहा धोकर भगवान के लिए प्रसाद बनाया करो .
कर्माबाई बोलीं-क्यां करूं,गोपाल सुबह-सुबह भूखे आ जाते हैं.
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उसने चेताया भगवान को अशुद्ध मत करो। स्नान के बाद रसोई साफ करो फिर भोग बनाओ।
सुबह भगवान आए और खिचड़ी मांगी। वह बोलीं-स्नान कर रही हूँ, रुको! थोड़ी देर बाद भगवान ने फिर आवाज लगाई. वह बोलीं- सफाई कर रही हूं. भगवान ने सोचा आज माँ को क्या हो गया.
भगवान ने झटपट खिचड़ी खायी, पर खिचड़ी में भाव का स्वाद नहीं आया.
उधर श्रीमंदिर के पट खुलने ही वाले थे , प्रभु जल्दी में बिना पानी पिए ही भागे,
मंदिर में पुजारी को देखा तो समझ गए प्रभु .
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इधर पुजारी ने पट खोले तो देखा भगवान के मुख पे खिचड़ी लगी है.
प्रभु! खिचड़ी आप के मुख में कैसे लगी.
भगवान ने राजा को स्वप्न में कहा-आप उस पुजारी को समझाओ, मेरी माँ को कैसी पट्टी पढाई.
राजा ने पुजारी से सारी बात कही. वह कर्माबाई से बोले - ये नियम पुजारीयो व् संतो के लिए हैं.
आप जैसे चाहो बनाओ.
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कुछ काल पश्चात् कर्माबाईजी के भी प्राण छूटे. उस दिन भगवान बहुत रोए.
श्री जगन्नाथ जी के श्रीविग्रह नयनो से अविरल अश्रु प्रवाह होने लगा।
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सम्पूर्ण श्री मंदिर में हाहाकार मच गया। ...
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'हो भी क्यों न श्रीविग्रह से अश्रुपात होना कोई आम बात थोड़ी न है।
पुजारी ने राजा ने भगवान को रोता देख कारण पूछा.
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तब रात्रि में राजा के स्वप्न में प्रभु बोले- आज माँ इस लोक से विदा हो गई. अब मुझे कौन खिचड़ी खिलाएगा.
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प्रातः ही समस्त विद्वानों संतो व् पुजारियो को बुलाकर सभा हुई।
सभी ने एकमत हो निश्चय किया व् कहा- प्रभु को माता की कमी महसूस न होने दी जाएगी.
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आज से सबसे पहले रोज प्रथम खिचड़ी का भोग लगेगा
व् प्रभु जगन्नाथ जी की प्रसन्नता हेतु राजा ने श्रीमंदिर प्रांगण में ही कर्मा बाई का एक सुन्दर मंदिर बनवा दिया।
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इस तरह आज भी जगन्नाथ भगवान को सर्वप्रथम खिचड़ी का भोग लगता है
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प्रातःकाल भोर में ही सर्वप्रथम खिचड़ी का थाल कर्मा बाई के मंदिर में धरा जाता है तत्पश्चात कर्माबाई का भाव धरके प्रभु को भोग आरोगा जाता है .
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प्रतिदिन का वह नियम उस काल से लेकर आज भी नियमपूर्वक निभाया जा रहा है।
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हो भी क्यों न प्रीत की रीत ही ऐसी है जगत का नाथ जगतपिता माँ के प्रेम के वशिभूत हो पुत्रवत व्यव्हार करता है।
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॥ जय श्री जगन्नाथ ॥